उत्तराखंड में महिलाओं को राजनीतिक रूप से सशक्त बनाने के उद्देश्य से लागू किया गया 50 प्रतिशत आरक्षण, ज़मीनी हकीकत में अब भी ‘मुखौटा प्रतिनिधित्व’ से आगे नहीं बढ़ सका है। त्रिस्तरीय पंचायत चुनावों में एक बार फिर वही पुराना चेहरा सामने आया है—नाम महिला का, लेकिन फैसले और प्रचार की कमान पुरुषों के हाथ में।
इस बार भी चल रहे पंचायत चुनावों में कुछ अलग तस्वीर देखने को नहीं मिल रही। पिथौरागढ़ जिले के विकास खंडों में नामांकन प्रक्रिया के दौरान अधिकतर स्थानों पर पुरुष ही सक्रिय नजर आए। नामांकन पत्र खरीदने से लेकर जमा करने तक की प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी बेहद सीमित रही। जो महिलाएं सामने भी आईं, उनके साथ या उनके स्थान पर उनके पति ही पूरे नियंत्रण में दिखाई दिए।
नामांकन के बाद प्रचार-प्रसार की जिम्मेदारी भी अधिकांश जगहों पर पुरुषों ने संभाली। कई महिला उम्मीदवारों के प्रचार में उनके पति ही आगे रहे, जिससे यह साफ होता है कि महिलाएं केवल नाम भर की उम्मीदवार हैं और असली कमान अभी भी पुरुषों के हाथों में है।
यह स्थिति कई सवाल खड़े करती है—क्या वाकई महिलाओं को मिले आरक्षण का फायदा सही मायनों में मिल रहा है? क्या पंचायतों में महिलाओं को वास्तविक अधिकार मिल पाएंगे या वे केवल ‘मुखौटा प्रतिनिधि’ बनकर रह जाएंगी?
सरकार की यह मंशा कि आरक्षण के जरिए महिलाओं को राजनीतिक रूप से सशक्त किया जाए, तब तक सफल नहीं मानी जा सकती जब तक सामाजिक ढांचे में वास्तविक बदलाव न हो। अब वक्त आ गया है कि महिलाओं को न केवल नामांकन तक पहुंच मिले, बल्कि वे निर्णय लेने की मुख्यधारा में भी पूरी सक्रियता से भागीदारी निभाएं।