एक मर्द के लिए ये कहना कितना आसान होता है—
“अब तुम पहले जैसी नहीं रहीं। वो खूबसूरती, वो अंदाज़, वो इतराना, वो रूठकर जल्दी मान जाना—अब सब बदल गया है।”
पर क्या कभी कोई मर्द ये सोचता है कि अगर वही शब्द एक औरत कह दे?
“अब तुम्हारे साथ वो मज़ा नहीं आता, तुम्हारा अंदाज़ अब अच्छा नहीं लगता।”
तो क्या एक पुरुष उसे सहजता से स्वीकार कर पाएगा?
ये वही औरत है जिसने खुद को पीछे रखकर तुम्हें पिता बनने का सुख दिया।
जिसने अपना शरीर, अपनी नींद, अपनी इच्छाएँ त्याग दीं, ताकि तुम्हारा घर संवर सके।
जो खुद को सजाने से ज़्यादा, तुम्हें और तुम्हारे परिवार को सँवारने में लगी रही।
सच है, बाहर की दुनिया चमकदार और मनमोहक दिखती है। लेकिन याद रखो, जैसे तुम्हें बाहर कुछ अच्छा लगता है, वैसे ही किसी और की नज़र में तुम्हारा घर भी सुंदर लगता होगा।
तो फिर क्यों भूल जाते हो कि अगर वो खुद पर समय नहीं दे पा रही है, तो शायद वो कहीं और व्यस्त है—शायद तुम्हारे लिए ही।
फिर भी अक्सर उसकी बाहरी सुंदरता ही देखी जाती है, उसकी थकान, उसके त्याग और उसकी असली खूबसूरती नहीं।
खूबसूरती सिर्फ चेहरे की नहीं होती।
वो त्याग में होती है, धैर्य में होती है, प्रेम में होती है।
क्या कभी किसी ने उस खूबसूरती को देखा है?
राखी सोती