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प्रकाश का पर्व या आत्मा का उत्सव?… जानें दीपावली का आध्यात्मिक रहस्य

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वेदों में वर्णित लक्ष्मी कोई तिजोरी में बंद स्वर्ण-राशि नहीं, बल्कि भगवान नारायण की प्रिय, श्री-सम्पन्न, सद्गुणों से युक्त वह दिव्य शक्ति हैं, जो समृद्धि, शील और विवेक की प्रतीक हैं। दर्शनशास्त्र के विद्वान शास्त्री कोसलेन्द्रदास बताते हैं कि दीपावली केवल रोशनी का उत्सव नहीं, बल्कि यह सनातन साधना, आत्मचिंतन और मानवता के उच्च आदर्शों का प्रतीक है।

यह पर्व मिट्टी के दीप से लेकर अंतःकरण के प्रकाश तक, मानव जीवन में शील, पुरुषार्थ और दिव्यता के अविचल संदेश को प्रकट करता है। जब सूर्य अस्त होता है, चंद्रमा और तारक-मंडल लुप्त हो जाते हैं, तब मिट्टी, तेल और बाती का यह साधारण-सा दीप मानव चेतना को आलोकित करने का उत्तरदायित्व उठाता है। ऋषियों का उद्घोष – “तमसो मा ज्योतिर्गमय” – इन्हीं दीपों में साकार होता है। इसीलिए शास्त्र इन्हें ‘दीप-देवता’ की उपाधि देते हैं।

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अंधकार, जो सदा से मानव के लिए एक चुनौती रहा है, वह जब अंतर्मन को घेर लेता है, तब सद्गुणों की चमक फीकी पड़ जाती है। ऐसे में दीप की लौ उस आंतरिक तमस को चीरकर ज्ञान की आभा से हमें आलोकित करती है। यह अग्निबिंदु नहीं, बल्कि नवजात शिशु के कोमल चेहरे-सा निष्कलुष प्रकाश है—लक्ष्मी का आशीर्वाद, ईश्वर का वरदान। *मुंडकोपनिषद्* में कहा गया है – “यह संपूर्ण जगत जिस प्रकाश से प्रकाशित है, वह परमेश्वर की दिव्य आभा का ही प्रसार है।” दीपावली उसी ज्ञान का व्यवहारिक रूप है।

इस पर्व का महत्व इस बात में भी निहित है कि इसमें जलाए जाने वाले दीप धरती की मिट्टी से बने होते हैं। ये कोई चमत्कारिक वस्तुएं नहीं, बल्कि मानव की कर्मठता और पुरुषार्थ का साक्षात प्रमाण हैं। प्रसिद्ध चिंतक आचार्य कुबेरनाथ राय के शब्दों में – “दीपावली की रात मानव द्वारा सृजित प्रकाश से अंधकार पर विजय की रात्रि है।” मिट्टी से बने ये दीप धरती की बेटी सीता के भ्राता समान हैं, जो जब जलते हैं, तो तारों की चमक भी उनके आगे मद्धिम हो जाती है।

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कार्तिक अमावस्या की गहन कालिमा में जब सिंधुजा लक्ष्मी का पूजन होता है, तब हम उस लक्ष्मी का ध्यान करते हैं, जो केवल वैभव की प्रतीक नहीं, बल्कि सेवा, सादगी, और सत्कर्म की अधिष्ठात्री हैं। वे अन्नपूर्णा हैं, वे गो-सेवा में रमणीय हैं, वे सौम्य दांपत्य और मधुर भाषा की संरक्षिका हैं। सच्ची लक्ष्मी वह है, जो सदाचारी पुरुषार्थ से प्राप्त हो। जो धन छल, कपट और अधर्म से अर्जित हो, वह कभी लक्ष्मी नहीं बन सकता।

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दीपावली यह स्मरण कराती है कि असली युद्ध बाहरी अंधकार से नहीं, भीतर छिपे अज्ञान और मोह से है। जैसा कि तेरहवीं सदी में सूफ़ी संत रूमी ने कहा था – “दीप अलग-अलग हो सकते हैं, पर उनकी रोशनी एक ही होती है।” यही एकात्मता, यही प्रकाश, यही दिव्यता दीपावली का मूल संदेश है। दीपावली केवल आंगन की सजावट नहीं, आत्मा के आलोक का पर्व है।

 

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हिल दर्पण डेस्क

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